Wednesday, December 1, 2010

ishq ibadat ????

तेरी  मीरा  ने  न  माँगा  तुझसे   कुछ  भी 
न  प्यार  न  परिवार   न  कोई  श्रृंगार 
उसे  तो  बस  जीतनी  थी  जंग  
जिन्दगी और मौत की अपने  ध्रुव  के  संग 
तुझसे  उसकी  ये  ख़ुशी  भी  देखी   न  गयी 
छीन  लिया  उसके  जीवन  का  वो  रंग
क्यों  न  आया  तुझे   एक  पल  का  भी  रहम 
घर  बेच  अपना  बचायी 
चंद  सांसें  उसकी  मैंने 
डर  था  तुझे   कही  ये  बोझ  न 
आजाये  तेरे  संग 
कहता  जो  खुदको  इश्क  इबादत  पर 
तू  न  जाने  प्यार  का  एक  भी  अंश 
लाखों  चाहने वाले और भी  इस  जमाने  में तेरे 
मगर  न  जाने  कोई  भी  तेरे  ये  कर्म  
केसे  मिलाएगा  नजर  परवर  दिगार  से  तू  मेरे 
करेगा  जब  सवाल  मेरा  ध्रुव  भी  उसके  संग 
चंद  लफ्ज़  प्यार  के  न  निकले  जुबा  से  तेरे 
रब  ही  बस   जाने   कौनसी    इबादत  थी  तेरी
 सिंदूर  को  तुने  मेरे  दे  दिया दोस्ती  का  एक  रंग 
बचपना  ये  तेरा  न  जाने  कितनो  को  रुला  गया 
तेरे  सजदे  में  एक  फूल  और मुरझा  गया 
तू  मदमस्त  जवानी  में  है  अपनी 
न  इल्म  तुझे  इसका  किस  रवानी  में  जां  अपनी 
तुझे  चाह  थी  बस  छूने  की  दिलरुबा  को  अपनी 
न  जाना  तुने  कभी  केसे  रहेगी  दुनिया  में 
आबरू  लुटा  के  वो  अपनी 
करती  है  इल्तजा  एक  माँ  तुझसे   ऐ खुदा 
न  करना  यूँ  मजबूर  तू  अब  किसीको  
चुप  रहकर  हमने  अपने  दिलबर  का
  गुनाह  तो   छिपा  लिया 
उसी  के  हाथो  हमने  
अपना  अस्तित्व  मिटा  दिया...

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