तेरी मीरा ने न माँगा तुझसे कुछ भी
न प्यार न परिवार न कोई श्रृंगार
उसे तो बस जीतनी थी जंग
जिन्दगी और मौत की अपने ध्रुव के संग
तुझसे उसकी ये ख़ुशी भी देखी न गयी
छीन लिया उसके जीवन का वो रंग
क्यों न आया तुझे एक पल का भी रहम
घर बेच अपना बचायी
चंद सांसें उसकी मैंने
डर था तुझे कही ये बोझ न
आजाये तेरे संग
कहता जो खुदको इश्क इबादत पर
तू न जाने प्यार का एक भी अंश
लाखों चाहने वाले और भी इस जमाने में तेरे
मगर न जाने कोई भी तेरे ये कर्म
केसे मिलाएगा नजर परवर दिगार से तू मेरे
करेगा जब सवाल मेरा ध्रुव भी उसके संग
चंद लफ्ज़ प्यार के न निकले जुबा से तेरे
रब ही बस जाने कौनसी इबादत थी तेरी
सिंदूर को तुने मेरे दे
दिया दोस्ती का एक रंग
बचपना ये तेरा न जाने कितनो को रुला गया
तेरे सजदे में एक फूल और मुरझा गया
तू मदमस्त जवानी में है अपनी
न इल्म तुझे इसका किस रवानी में जां अपनी
तुझे चाह थी बस छूने की दिलरुबा को अपनी
न जाना तुने कभी केसे रहेगी दुनिया में
आबरू लुटा के वो अपनी
करती है इल्तजा एक माँ तुझसे ऐ खुदा
न करना यूँ मजबूर तू अब किसीको
चुप रहकर हमने अपने दिलबर का
गुनाह तो छिपा लिया
उसी के हाथो हमने
अपना अस्तित्व मिटा दिया...
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